Saturday, March 08, 2008

ग़ालिब (४)- दर्द मिन्नत

दर्द मिन्नत-कशे-दवा ना हुआ,
मैं ना अच्छा हुआ, बुरा ना हुआ

जमा करते हो क्यों रकीबों को?
यक तमाशा हुआ, गिला ना हुआ

हम कहाँ किस्मत आजमाने जाएं,
तू ही खंजर आजमा ना हुआ?

कितने शीरीं हैं तेरे लब, की रकीब-
गालियाँ खा के भी बेमज़ा ना हुआ

क्या वह नमरूद की खुदाई थी,
बंदगी में मेरा भला ना हुआ

जान दी, दी हुई उसी की थी,
हक तो यह है, की हक अदा ना हुआ

कुछ तो पढिये, की लोग कहते हैं,
आज ग़ालिब, ग़ज़लसरा ना हुआ

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