Sunday, March 16, 2008

ग़ालिब (५)- आह को चाहिये

आह को चाहिये एक उम्र असर होने तक,
कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक.

आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब,
दिल का क्या रंग करूं, खून-ऐ-जिगर होने तक.

हमने माना की तगाफुल न करोगे लेकिन,
ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको ख़बर होने तक.

परतवे-खुर से है शबनम को, फना की तालीम,
मैं भी हूँ, एक इनायत की नज़र होने तक.

गम-ऐ-हस्ती का असद किससे हो जुज्मर्ग इलाज,
शमा हर रंग में जलती है, सहर होने तक.

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